सांस्कृतिक मामलों का विभाग, केरल सरकार


सोपान संगीतम

केरल की यह अपनी अनूठी संगीत विधा है, सोपान संगीतम (संगीत) की शुरुआत केरल के मंदिरों से जुड़ी मानी जा सकती है। इसका संगीत रागों पर आधारित है। हालांकि गाने की विधि कर्नाटक संगीत से भिन्न है।

शब्द ‘सोपान’ का अर्थ होता है वे सीढ़ियां,जो गर्भगृह तक जाती हों। इसलिए, सोपान संगीत का भी मतलब मंदिर की सीढ़ियों के बगल से गाना है। हालांकि इसकी एक अन्य विवेचना है। सोपान संगीतम राग के अवरोह और आरोह के समान ही है। कुछ ‘स्वरों’ (नोट्स) को स्थाई के रूप में स्वीकार करते हुए और अन्य से पूरी तरह से बचते हुए, संगीत का आरंभ विलम्बितकाल (धीमी ताल) से होता है और धीरे-धीरे इसकी रफ़्तार बढ़ती जाती है और शिखर पर पहुंचने के बाद यह धीमी हो जाती है। यह सोपान संगीतम की शैली है।

सोपान संगीतम दो प्रकार के होते हैं- ‘कोट्टिप्पाडी सेवा’ और ‘रंगसोपानम’। ‘कोट्टिप्पाडी सेवा’ वह शैली है जिसमें मारार इडक्का (छोटे बालू-घड़ी आकार जातीय ढोल) पर प्रहार करता है, जो पूजा के समय मंदिर के सीढ़ियों पर रखा होता है। आरंभ में मुख्य देवता की स्तुति में एक ‘कीर्तन’ गाया जाता है। उसके बाद जयदेव के गीता गोविंदम से ‘अष्टपदि’ गाया जाता है। कभी-कभी किसी दुर्लभ मौकेपर शिव स्तुति भी गाई जाती है।

सोपान संगीतम द्रविड़ियन संगीत का ही एक रूप है। द्रविड़ियन संगीत की अवधि संघम काल से आरंभ होती है और यह चेर शासनकाल (4वीं ई. से 10वीं ई.) तक है। उनमें से प्राचीन तमिल गाने, ‘तेवारम’ गाने इत्यादि प्रमुख हैं। इलंकोवडिकल का ‘चिलपतिकारम’ ने स्पष्ट रूप से राग-आधारित संगीत का उल्लेख किया है। चिलपतिकारम की नायिका नृत्य और संगीत की विशेषज्ञ है। उसमें संगीत शिक्षक के सभी गुण विद्यमान हैं। चिलपतिकारम से हमें संगीत, संगीत वाद्ययंत्रों इत्यादि के काफी सारे नियम मिलते हैं। सप्त स्वरंगल या सात स्वर को वजिक्कु वजिकुरल, तूत्तम, कैक्किलै, उज़ई, इल्ली, विलरी और तारम के रूप में जाना जाता है। श्रुति को ‘अलह’ और राग को ‘पण’ के रूप में जाना जाता है। प्रयुक्त वाद्ययंत्र याज था, जिसमें कई तार होते थे। रागों को मूल प्रदेशों के नामों के आधार पर जाना जाता था, जैसे कि नैतल पण, पालई पण, मरुतम पण, कुरिंजी पण, मुल्लई पण इत्यादि।

8वीं सदी के दौरान आर्यों के आक्रमण से केरल मं मंदिर का प्रचलन काफी बढ़ा। इस अवधि के दौरान शैव-वैष्णव मंदिरों में संगीतमय पूजा-अराधना की जाती थी। विष्णु मंदिरों में यह ‘तिरुवायमोजी’ और शैव मंदिरों में ‘तेवारम पाट्टुकल’ था। ‘तेवारम पाट्टुकल’ 28 रागों पर आधारित था। प्रमुख तमिल रागों में कौशिकम, व्याजकुरिन्ची, पजम पंजुरम, गांधार पंचमम, तक्केशी, सदारी, चेंतुरुत्ति शेव्वजी, तिरुत्ताण्डवम, पजमतक्का, इंदलम, गांधारम, पुरनीर्मयी और कोल्ली शामिल थे।

कूटियाट्टम कुलशेखर वर्मन (8वीं सदी) के दौरान उदय हुआ। कूटियाट्टम में भी राग-आधारित रचना – ‘स्वरिक्कल’ थी।

12वीं सदी में जयदेव का गीता गोविंदम केरल के संगीत और नृत्य दोनों में लोकप्रिय हुआ। यहां तक कि इडक्का बजाते हुए गीत गाना भी रागों पर ही आधारित था। आहरी, कल्याणी, कामोदरी, केदारगौला, केदारपन्त, गुर्जरी, खंडा, देवगांधारी, देशाक्षी, पन्तुवराली, पुन्नगवराली, भूपालम, मध्यमावती, मलहरी, मालवा, मुखारी, रामक्रीया, वसंतभैरवी, शंकराभरणम और सौराष्ट्रम ‘कोट्टिप्पाडी सेवा’ के लिए प्रयुक्त कुछ राग थे।

सोपान संगीतम का सर्वाधिक अहम शाखा ‘अरंगु संगीतम’ है। इसे अभिनय संगीतम के नाम से भी जाना जाता है। इस संगीत का इस्तेमाल मुडियेट्टु, अर्जुना नृतम जैसी लोककलाओं तथा शास्त्रीय कलाओं जैसे कि कूटियाट्टम, कृष्ननाट्टम और कथकली में किया जाता है। यह संगीत अभिनय पर आधारित है। यह तौर्यात्रिका – आधारित है। मंच पर, गायक गाते हैं और वादक अपना वाद्ययंत्र बजाते हैं और कलाकार कई पात्रों की भूमिका निभाते हैं। यहां संगीत की भूमिका दर्शकों को कहानी और पात्रों को बयां करना है। संगीत की इस विधा की ख़ासियत राग और ताल है, जिनका इस्तेमाल पात्रों के हाव-भाव को प्रकट करने में किया जाता है।

मुडियेट्टु में गीत सोपान संगीत की शैली में गाए जाते हैं। केदारागौला, तोडी और खरहरप्रिया जैसे रागों का इस्तेमाल किया जाता है।

चेंडा, वीक्कन चेंडा, चेंगिला, इलत्तालम और शंक जैसे वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल किया जाता है। ‘तौर्यात्रिकम’ एकम, त्रिपुडा, चेम्पडा, चम्बा, अडन्ता, मुरियडन्ता इत्यादि जैसे तालों पर संरचित है।